राजा की रानी
वह युवक अत्यन्त व्यस्त होकर बोल उठा, “मैं अभी दिए देता हूँ।” चिट्ठी और टेलीग्राम दोनों ही भेजे देता हूँ”, इतना कहकर वह उठकर चला गया। मैंने मन ही मन कहा, 'भगवान, वह खबर पा जाय!'
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होश आने पर पहले तो मैं अपनी अवस्था अच्छी तरह समझ भी न सका। मस्तक पर हाथ ले जाकर अनुभव किया कि यह तो आईस-बेग है। ऑंखें मिलमिलाकर देखा कि मकान के भीतर एक खाट पर पड़ा हूँ। सामने स्टूल के ऊपर एक दीपक के पास दो-तीन दवा की शीशियाँ और उसके पास एक रस्सी की खाट पर कोई मनुष्य लाल चेक का रैपर शरीर पर लपेटे हुए सो रहा है। बहुत देर तक मैं कुछ भी याद न कर सका। इसके बाद, एक-एक करके, जान पड़ने लगा, मानो नींद में कितने ही स्वप्न देखे हैं। अनेक लोगों का आना-जाना उठाकर मुझे डोली में डालना, मस्तक उठाकर दवाई पिलाना, ऐसे कितने ही व्यापार दिखाई पड़े।
कुछ देर बाद, जब वह मनुष्य उठकर बैठ गया तब, देखा कि कोई बंगाली सज्जन हैं, उम्र; अठारह-उन्नीस से अधिक नहीं। उस समय सिरहाने के निकट से मृदु-स्वर में जिसने उसको सम्बोधन किया उसका स्वर मैंने पहिचान लिया।
प्यारी ने अति मृदु कण्ठ से पुकारा, “बंकू, बरफ को एक बार और बदल क्यों नहीं दिया बेटा?”
लड़का बोला, “बदले देता हूँ, तुम थोड़ा-सा सो लो न माँ। डॉक्टर बाबू जब कह गये हैं कि शीतला नहीं है, तब डरने की कोई बात नहीं है माँ।”
प्यारी बोली, “अरे भइया, डॉक्टर के कहने से, कि डर की कोई बात नहीं हैं, औरतों का भय कहीं जाता है? तुझे चिन्ता करने की जरूरत नहीं है बंकू, तू तो बरफ बदल कर सो जा- फिर रात को मत जागना।”
बंकू ने आकर बरफ बदल दिया और लौटकर वह फिर उसी खटिया पर जा पड़ा। थोड़ी ही देर बाद जब उसकी नाक बजने लगी तब मैंने धीरे से पुकारा “प्यारी!”
प्यारी ने मुँह के ऊपर झुक पड़कर सिर पर के जलबिन्दु ऑंचल से पोंछते हुए कहा, “मुझे क्या तुम चीन्ह सकते हो? अब कैसे हो? कल...”
“अच्छा हूँ। कब आयीं? यह क्या आरा है?”
“हाँ आरा ही है। कल हम लोग घर चलेंगे।”
“कहाँ?”
“पटने। सिवाय अपने घर ले जाने के, अभी क्या और कहीं, मैं तुम्हें छोड़ जा सकती हँ?”
“यह लड़का कौन है, राजलक्ष्मी?”
“मेरी सौत का लड़का है। किन्तु, बंकू मेरे पेट का लड़का-सा ही है। मेरे पास रहकर ही पटना कॉलेज में पढ़ता है। आज अब और बात मत करो। सो जाओ- कल सब कहूँगी।” इतना कहकर उसने मेरे मुँह पर हथेली रखकर मेरा मुँह बन्द कर दिया।
मैं हाथ बढ़ाकर राजलक्ष्मी के दाहिने हाथ को मुट्टी में लेकर करवट बदल कर सो रहा।
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जिस ज्वर से पीड़ित होकर मैं बेहोश हो शय्यागत हो गया था वह शीतला का नहीं था, कुछ और ही था। डॉक्टरी शास्त्र में निश्चय से ही उसका कोई बड़ा भारी कठिन नाम था, परन्तु मुझे वह याद नहीं रहा। खबर पाकर प्यारी, अपने लड़के, दो नौकर और दासी को लेकर, आ उपस्थित हुई। उसी दिन एक ठहरने का स्थान किराये पर लेकर मुझे उसमें स्थानान्तरित कर दिया और शहर के भले-बुरे सब चिकित्सकों को बुलाकर वहाँ इकट्ठा कर लिया। अच्छा ही किया। नहीं तो, और कोई नुकसान चाहे भले ही न होता, परन्तु 'भारतवर्ष' के¹ पाठक-पाठिकाओं के धैर्य की महिमा तो संसार में अविदित ही रह जाती!
सुबह प्यारी ने कहा, “बंकू, और देरी मत कर बेटा, इसी समय एक सेकण्ड क्लास का डब्बा रिझर्व करा आ। मैं एक क्षण भी इन्हें यहाँ रखने का साहस नहीं कर सकती।”
बंकू की अतृप्त निद्रा उस समय भी उसके दोनों नेत्रों में भर रही थी; उसने उन्हें मूँदे ही मूँदे अव्यक्त स्वर में जवाब दिया, “तुम पगला गयी हो माँ ऐसी अवस्था में क्या रोगी को यहाँ से वहाँ ले जाया जा सकता है?”
प्यारी ने कुछ हँसकर कहा, “पहले तू उठ, ऑंख-मुँह पर जल डाल, देखूँ इसके बाद यहाँ-वहाँ ले जाने की बात समझ ली जावेगी। राजा बेटा मेरे, उठ!”
बंकू और कोई उपाय न देख, शय्या त्याग, मुँह हाथ धो, कपड़े बदल स्टेशन चला गया। उस समय भी बहुत जल्दी थी- घर में और कोई नहीं था! धीरे-धीरे पुकारा, “प्यारी!” मेरे सिरहाने की ओर एक खटिया सटकर बिछी हुई थी। उसी पर थकावट के कारण, शायद इसी बीच, वह कुछ ऑंखें मूँदकर लेट गयी थी। चटपट उठ बैठी और मेरे मुँह पर झुक गयी। कोमल कण्ठ से उसने पूछा, “नींद खुल गयी?”
“मैं तो जाग ही रहा हूँ।” प्यारी ने उत्कण्ठित यत्न के साथ मेरे सिर और कपाल पर हाथ फेरते-फेरते कहा, “ज्वर तो इस समय बहुत कम है। ऑंखें मूँद कर थोड़ा-सा सोने की चेष्टा क्यों नहीं करते?”
1 श्रीकान्त का यह भ्रमण-वृत्तान्त पहले बंगाल के प्रसिद्ध मासिक पत्र 'भारतवर्ष' में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ था।
“सो तो मैं बराबर ही करता हूँ प्यारी, आज ज्वर को कितने दिन हुए?”
“तेरह दिन” कहकर उसने बड़ी बूढ़ी पुरखिन की तरह गम्भीर भाव से कहा, “देखो, लड़के-बालों के सामने मुझे यह नाम लेकर मत पुकारा करो। बहुत दिनों तक 'लक्ष्मी' कहकर पुकारा किये हो, वही नाम लेकर क्यों नहीं पुकारते?”
दो दिन से मैं खूब होश में था। मुझे भी सब बातें याद आ गयी थीं। मैंने कहा, “अच्छा।” इसके बाद, जिस बात के कहने के लिए बुलाया था उसे मन ही मन अच्छी तरह सजाकर कहा, “मुझे ले जाने की चेष्टा कर रही हो, किन्तु, मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिए हैं, अब और नहीं देना चाहता।”
“तो फिर क्या करना चाहते हो?”
“मैं सोचता हूँ, अब जैसा मैं हूँ, उससे जान पड़ता है कि तीन-चार दिन में ही, अच्छा हो जाऊँगा! तुम लोग चाहे तो इतने दिन और ठहर कर घर चले जाओ।”
“तब तुम क्या करोगे, सुनूँ तो?”
“जो कुछ होना होगा सो हो जायेगा।”
“सो हो जायेगा” कहकर प्यारी कुछ हँस दी। इसके बाद सामने आकर खाट पर एक ओर बैठकर, मेरे मुँह की ओर देखकर, क्षण-भर चुप रहकर फिर कुछ हँसकर बोली, “तीन-चार दिन में तो नहीं, दस-बारह दिन में यह रोग चला जायेगा, यह मैं जानती हूँ; परन्तु असली रोग कितने दिनों में दूर होगा- सो क्या मुझे बता सकते हो?”
“असली रोग और क्या?”
प्यारी ने कहा, “सोचोगे कुछ, कहोगे कुछ, और-करोगे कुछ, हमेशा से तुम्हें यही एक रोग है। तुम जानते हो कि एक महीने के पहले मैं तुम्हें ऑंखों की ओट न कर सकूँगी- फिर भी कहोगे 'तुम्हें कष्ट दिया, तुम जाओ'; अरे ओ दयामय! मेरा यदि तुम्हें इतना अधिक दर्द है तो, और चाहे जो होओ पर- सन्यासी तो तुम नहीं हो- सन्यासी बनकर यह क्या हंगामा खड़ा किया है! आकर देखती हूँ, तो जमीन पर फटी कथरी पर घोर बेहोशी में पड़े हो, धूल-कीचड़ में जटाएँ सन गयी हैं, सारे अंग में रुद्राक्ष की माला है और दोनों हाथों में पीतल के कड़े हैं! मैया री मैया! चेहरा देखकर रोए बिना न रह सकी!” इतना कहते-कहते उमड़ा हुआ अश्रुजल उसकी दोनों ऑंखों में झलक आया। चटपट उसे हाथ से पोंछकर वह बोली, “बंकू बोला, ये कौन हैं माँ? मन ही मन बोली- तू बच्चा है, तेरे आगे वह बात क्या कहूँ भइया! ओह, वह दिन भी कैसी विपत्ति का था, भैया री, कैसी शुभ घड़ी पाठशाला में हमारी चार ऑंखें हुई थीं! जो दु:ख तुमने मुझे दिया है, उतना दु:ख दुनिया-भर में किसी ने कभी किसी को नहीं दिया होगा- और न देगा ही। शहर में शीतला दिखाई दी हैं-सबको लेकर अच्छी भली भाग जा सकूँ तो जान में जान आवे।” इतना कहकर उसने एक दीर्घ श्वास छोड़ा।